क्या आप इस व्यक्ति को पहचानते है ?
काम के विचारो का सैलाब उसके गहरे नींद में भी उमड़ पड़ता। उसके मन का दरिया हर समय अशांत रहता। उसके जीवन में कोई ख़ास आनंद नहीं था। अंदर से वो बेहद ऊब चूका था। हर रोज़ वही कहानी, कुछ भी ख़ास नहीं था काम में। हर महीना एक जैसा होता था। सिर्फ काम पर जाना और वापिस आकर सो जाना। उसका उत्साह ख़त्म सा हो रहा था। सिर्फ सैलेरी पाने के लिए, कुछ पैसे कमाने के लिए वह अपने आपको कभी कभी धक्के मार कर भी काम पर भेजता रहता। हाँ, सिर्फ कुछ पैसो के लिए। खुद को ज़िंदा रखने के लिए।
वह मैदानों में खेला करता था, दोस्तों के साथ वक़्त बिता पाता था, परिवार के साथ चैन से बात करता था, कहीं भी जाने की उसे कोई जल्दी नहीं होती थी। लेकिन ज़िन्दगी के एक लहर ने उसकी नाँव की दिशा बदल दी, और अब वो दिशाहीन होकर कहीं खो सा गया है। लेकिन यह सब तो सिर्फ शुरुआत है। अभी तो उसे बहोत से और फायदों का अनुभव होगा।
काम पर आते जाते समय उसका सामना कभी धुप से होता था, तो कभी ठंड से, कभी कीचड़ से, कभी गड्ढो से। लेकिन वो क्या कर सकता था, सिवाय सहने के ? उसे काम में कोई ख़ास रूचि नहीं थी। अक्सर अगले रविवार के, अगले छुट्टी के इंतज़ार में रहता। थोड़ी सी शांति, थोड़े से आराम के तलाश में। रविवार शाम होते ही उसका मन फिर से उदासीन हो उठता। अगला दिन सोमवार जो है। एक बार फिर काम पर समय पर पहोंचना होगा। थकान पूरी तरह उतर तो नहीं पाई, लेकिन काम से समझौता कैसा। काश एक दिन की छुट्टी और मिल जाती। पर असंभव चीज़ो का कामना क्यों करना ?
मानसिक रूप से भी वो थक चूका था। लेकिन जीवन तो एक संघर्ष ही है ना ? उनके लिए जो एक्टिव इनकम कमाते है। वे लोग, जिन्हे हमेशा एक्टिव रहना पड़ता है काम पर, तभी पैसा आता है। 97% लोगो की तरह उसे भी भागते रहना होगा। दुसरो के साथ, लगातार। अगर कहीं वो इनेक्टिव हुआ, तो उसकी इनकम भी बंद हो जाएगी। उसे कहाँ पैसिव इनकम कमाने वालो के बारे में पता था ? जो पैसो के पीछे नहीं भागते। बल्कि पैसा उनके पीछे भागता है। ऐसा इसलिए था क्योंकि उसने अभी इम्पैक्ट बिज़नेस नहीं देखा था।
दिन और रात महीनो में बदल गए, महीने साल में। उसकी शारीरिक स्थिति धीरे धीरे बिगड़ रही थी। एसिडिटी और उससे होने वाले गैस से उसका पेट फूलने लगा था। यह रोग और महा रोग की पहली निशानियाँ थी। जो खट्टापन उसने महसूस किया, ऐसा जीवन में उसने पहले कभी नहीं अनुभव किया। उसने कभी नहीं सोचा था कि काम से ऐसे अतिरिक्त लाभ भी होंगे। इस तरह के बिन बुलाए बोनस के लिए वह बिलकुल तैयार नहीं था। उसे समझ आया की अब तो वह परिवार से 1000 किलोमीटर दूर एक नए शहर में हर रोज़ टिफिन का खाना खा रहा है। बाहर के खाने में माँ के हाथ का प्यार कहाँ मिलना था। शरीर में उस प्यार की कमी तो आनी ही थी। लेकिन यह सब वो किसी को कह कहाँ सकता था। यह सब तो ज़िंदगी की वो सच्चाइयाँ है जो वो खुदको भी नहीं समझा सकता था। पैसो के लिए, पेट के लिए, परिवार के लिए सब कुछ करना ही पड़ता है। इसे ही तो लोग परिवार के लिए त्याग करना कहते है। ज़िंदगी भर सभी काम करते ही है। इसमें नया क्या है ? ऐसा सोच रहा था वह। क्योंकि उसने अब तक इम्पैक्ट बिज़नेस देखा नहीं था।
अक्सर रातों को वह सो नहीं पा रहा था। उम्र और तनाव की लकीरे चेहरे पर और आँखों पर साफ़ नज़र आ रही थी। आँखों के निचे काले गड्ढे शरीर के अंदर हो रहे नुकसान का बयान दे रहे थे। यह सब कुछ बहोत जल्दी हो गया। वह इसके लिए बिलकुल तैयार नहीं था। सोच में पड़ गया, ऐसा क्यों हो रहा होगा। पर वह इस बारे में कुछ नहीं कर सकता था। क्योंकि नियंत्रण उसके हाथ में नहीं था। यह ज़िंदगी के थपेड़े थे जो उसे सहते रहने थे। उसे आगे आने वाले खतरों का बिलकुल भी आभास नहीं था। क्योंकि आसपास के सभी लोगो के साथ भी यही हो रहा था। उसे लगा सब सामान्य है। हर रोज़, हर व्यक्ति इसके साथ ही तो जी रहा है। इन सब से ज़िंदगी थम नहीं जाती। वह रुक नहीं सकता था। 130 करोड़ लोगो के इसी समूह के साथ वह आगे बढ़ता जा रहा था। उस दिशा में जहाँ आगे मंज़िल नहीं थी। कोई लक्ष्य नहीं था। क्योंकि सपने तो पहले ही चकनाचूर हो चुके थे। या उनका आकार छोटा हो चूका था। यह सब इसलिए क्योंकि उसने अभी तक इम्पैक्ट बिज़नेस देखा नहीं था।
सालों बीतते रहे। हर रोज़ धुप उसे जलती। प्रदुषण उसकी ऊर्जा को सुखाती। तनाव उसके शक्ति को क्षीण करती। काम का प्रेशर उसे थका देती। पर वो क्या करता। सैलेरी और पैसो के लिए सब कुछ झेलना ही था। हर रोज़ ट्रैफिक में फसना, अब सामान्य हो गया था। इतने सालो तक एक ही काम करते रहने से किसी भी चीज़ की आदत पड ही जाती है। एक घंटे तक ड्राइव करके ऑफिस पहोंचना, और ऐसे ही वापिस आना, अब रोज़ की बात हो गई थी। उसे खुद नहीं पता था की वह किस जाल में फंसा है। यह वो जाल था जिसमे व्यक्ति 20 साल से 60 साल तक फँसा रहता है। शारीरिक ऊर्जा उसकी क्रमश कम होती चली जा रही थी। यह नौकरी/व्यवसाय करने से मिलने वाले वो बोनस थे जिसके बारे में किसी ने इसे नहीं बताया था।
कई साल उसके आँखों के सामने गुज़रते रहे। हर रोज़ वो सिग्नल पर फँसता और ट्रैफिक की बत्ती के हरे होने का इंतज़ार करता, हर रोज़। कभी कभी उसे गुस्सा भी आता पर वह किसी से कुछ कह नहीं सकता था। उसे महसूस हो रहा था कि वह फँस गया है। उसने अपना धीरज बनाए रखा, पर उससे भी उसे कुछ ख़ास हासिल नहीं हो रहा था। उसके अंतर में काम करने से होने वाले किसी प्रकार का कोई संतोष नहीं था। सिर्फ अपने पेट भरने के लिए करना पड़ रहा था। खुद को ज़िंदा रखने के लिए। अपने परिवार को पालने के लिए। ताकि वे भी इसी प्रकार जी सके। उसे अब पता लग रहा था कि आने वाले सालो में स्थिति बद से बदतर होती चली जाएगी। यह सब उसे नहीं चाहिए था। उसे अब यह समझ आ रहा था कि महीने की शुरुआत में जो सैलेरी उसे मिलती थी वह उसे सिर्फ एक और महीना ज़िंदा रखने के लिए पर्याप्त थी। खुद को जीवित रखने की समस्या आजीवन रहता था, लेकिन इसका समाधान सिर्फ एक महीने का था। हर महीने काम पर भागना ही पड़ता था। लेकिन वो कर भी क्या सकता था। उसे इम्पैक्ट बिज़नेस के बारे में कहाँ पता था।
अक्सर छुट्टी के दिन भी उसे काम पर जाना पड़ता था। कई दिन ऐसे होते थे जब उसे देर तक रूककर काम करना पड़ता था। त्यौहारों पर सिर्फ कुछ देर अपने परिवार के साथ फोन पर बतिया लेता था। हर दिन निरुत्साह होकर बिस्तर से उठता था। काम के अगले प्रेशर पर ध्यान केंद्रित रखना होता था। प्रकृति और परिवार से वो कटता जा रहा था। उसे महसूस हो रहा था कि ज़िंदगी कहीं न कहीं बिखर सी गई है। रात को थककर बिस्तर पर ढेर हो जाता।
तनाव से उसका पेट बाहर आ रहा था। तोंद शर्ट के बीच से बाहर आकर मुस्कुरा रहा था। मानो कह रहा हो, की अंदर डाइबिटीस, ब्लड प्रेशर और अटैक ने घर बनाया है। थोड़ी सी जगह दीजिए। नौकरी से इतने सारे बोनस और मिलेंगे, यह उसने कभी नहीं सोचा था। न चाहा था। न इसकी कभी मांग की। रत्ती भर भी अपेक्षा नहीं थी उसे इन सब के होने की। शारीरिक स्वस्थता अब उसके हाथो से बहोत तेज़ी से फिसलती जा रही थी। वह समझ चूका था की वह एक ऐसे जाल में फँस चूका है जिससे बाहर निकलना ज़्यादातर लोगो के लिए असंभव होता है। क्योंकि ब्लड प्रेशर, डाइबिटीस की गोलियाँ ज़्यादातर शुरू तो होती है, लेकिन बंद कभी नहीं होती। और इन गोलियों के साइड एफेक्ट ज़रूर झेलने पड़ते है। कहते है पहला सुख होता है एक निरोगी काया। यह सुख किस्मत, या यूँ कहे उसका काम, उससे छीन चुकी थी।
ज़िंदगी की कड़वी सच्चाई अब उसके सामने थी। वो सिर्फ ज़िंदा ही तो था। बिल भरने के लिए काम करता। एक छोटे से सैलेरी और इनकम के लिए काम कर रहा था। उसमे जो टैलेंट था उसके हिसाब से उसकी इनकम बहोत ही कम थी। कभी उसकी कंपनी ने उसके टैलेंट की कदर नहीं की। सिर्फ उतना ही काम उससे लिया जितने की उन्हें ज़रूरत थी। उसकी असली प्रतिभा कभी बाहर ना आ सकी। अब वह बहोत बुरी तरह से बाहर निकलना चाहता था। कुछ बेहतर चाहता था। फिर से ज़िंदादिली से जीना चाहता था। पर वास्तविकता तब भी यही थी कि वह सिर्फ अपने परिवार की ज़रूरतों को ही तो पूरा कर पा रहा था। क्योंकि अब तक उसने कभी भी इम्पैक्ट बिज़नेस नहीं देखा था।
एक दिन यह घटना भी घटना भी घट गई। एक पुराने दोस्त का फोन आया। उसे कुछ पैसो की अत्यधिक ज़रूरत थी। रकम बहोत बड़ी तो नहीं थी, पर वह उतनी राशि जुटाने में भी असमर्थ था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने दोस्त को कैसे मना करे। क्योंकि उसे वह समझाना पड़ता जो वह खुद नहीं समझ पाया था। सारे पैसे हर महीने घर भेजने के बाद उसके पास ज़्यादा बचते ही नहीं थे। उसकी निजी ज़रूरते मुश्किल से पूरी हो पाती थी। कई जवाबदारियाँ थी उसके कंधो पर। बहन की शादी के लिए पैसे बचाने होते थे, छोटे भाई के पढ़ाई के लिए, माता पिता के दवाइयों और अन्य टेस्ट के खर्चे, उसके अपने लोन वगैरह। दोस्त की मदद हो सके इतना बचता कहाँ था। महीना ख़त्म, पैसा ख़त्म। सच्चाई तो यह थी कि महीना ख़त्म होने से पहले ही पैसे ख़त्म हो जाते थे। ऐसे में वह अपने दोस्त की मदद करने की स्थिति में बिलकुल नहीं था।
उसका दिल चीख उठा। अंदर से वह सहम गया। बिलकुल पसीज गया। गहरी सोच में पड़ गया कि यह मै क्या कर रहा हुँ। इतने साल काम करने के बाद भी मै इतना लाचार कैसे हो गया ? कि दोस्त को ज़रूरत पड़ने पर उसकी मदद भी नहीं कर सका। उसे अपने आप पर, अपने काम पर शर्म आ रही थी। ग्लानि से उसका मन भर गया। उसे महसूस हुआ कि अगर उसके दोस्त की तरह उसके परिवार में कभी पैसो की ऐसी आवश्यकता आ जाए तो वह उसके लिए बिलकुल तैयार नहीं था। अब सच्चाई पर से पर्दे हट रहे थे। इतने साल काम करने के बाद भी यह हाल था उसका। किसी ने उसे नौकरी से होने वाले ऐसे फायदों के बारे में नहीं बताया था। किसी ने अब तक उसे इम्पैक्ट बिज़नेस के बारे में नहीं बताया था।
अब वह बदलाव के लिए तैयार था। एक बार व्यक्ति अपने अंदर की दुनिया बदल ले तो उसके बाहर की दुनिया भी बदल जाती है।